प्रेरक कहानियां - पार्ट 97
अतिथि-यज्ञ
एक बार उनके राज्य में भयानक आकाल पड़ा। भूख के मारे और दरिद्रता के सताए लोगों का राजा के यहाँ ताँता लग गया। राजा ने उनके लिए अनाज के भंडार खोल दिए। राजकोष से धन बाँटा गया।
जब अनाज न रहा, धन भी बँट गया, वस्त्र भी न बचे, तब रन्तिदेव को खाली महल देखकर रोना आ गया। इसलिए नहीं कि वे निर्धन हो गए, अपितु इसलिए कि यदि कोई अतिथि आ गया, ज़रूरतमंद ने हाथ फैलाया तो उसे देंगे क्या ?
इस विचार के आते ही रानी और नन्हे राजकुमार को लेकर महल से निकल पड़े। नगर के बाहर निकल गए। उजड़े उद्द्यानों और निर्जन क्षेत्रों से भी आगे चले गए। ऐसी जगह पहुँचे जहाँ न अन्न था, न पानी। एक-एक करके चालीस दिन बीत गए। कभी भूख सताती तो सूखे पत्ते चबा लेते, कभी वे भी न मिलते।
ऐसी दशा में राजा, रानी और राजकुमार हड्डियों के ढाँचे होकर रह गए। यहाँ तक कि चलना भी दूभर हो गया।
चालीसवें दिन एक पेंड के नीचे बैठे थे। तभी एक सज्जन वहाँ आए। ताज़ा भोजन का एक थाल उनके पास था। उसने तीनों को भोजन परोसा। ताज़ा शीतल जल भी रखकर वह यह कहते हुए चल दिए - " आप भोजन करें, मुझे आगे यात्रा पे जाना है। "
ये तीनों आचमन करके खाने को बैठे। रन्तिदेव का थाल को बढ़ता हाथ काँप उठा। मन में हूक-सी उठी-हाय ! आज क्या अतिथि को भोजन कराए बिना ही हमें खाना होगा ? जो आज तक नहीं किया, क्या वही आज करेंगे ?
तभी दूर से दो ब्राह्मण आते दिखाई दिए। पास आकर उन्होंने कहा - " हमें भूख लगी है, क्या आप थोड़ा भोजन दे सकते हैं ? "
रन्तिदेव खिले मुखड़े से बोले - " आप विराजिए और भोजन कीजिए। " कहकर अपने हिस्से का भोजन उन दोनों को बाँट दिया।
अतिथियों की भूख शांत न हुई तो रन्तिदेव ने रानी का भोजन भी उन्हें परोस दिया, पानी भी पीला दिया। अतिथि तृप्त होकर चले गए। रन्तिदेव ने राजकुमार के हिस्से का भोजन तीन जगह बाँट लिया।
तभी तीन भूखे यात्री आ गए। वे भी उन तीनों का भोजन खाकर चलते बने।
थोडा - सा पानी हि बचा था। रन्तिदेव बोले - " थोडा-थोडा पानी पीकर ही निर्वाह किए लेते हैं। "
तभी एक प्यासा यात्री आ गया। राजा ने सारा पानी उसे पीला दिया।
तभी उनके अंदर से ध्वनि आई - ' रन्तिदेव ! अतिथि - यज्ञ की परीक्षा में तुम खरे उतरे। तुम सर्वस्व के अधिकारी हो। बोलो, क्या चाहिए ? '
रन्तिदेव ने काँपते होंठों से कहा - " नहीं चाहिए मुझे स्वर्ग नहीं चाहिए राजपाट और सुख-भोग। देना ही चाहते हो तो यही वर दो कि दुखी लोगों के ह्रदय में निवास कर सकूँ, उनके दुःख बाँट सकूँ, उन्हें सुख दे सकूँ। "
भाइयों ! रन्तिदेव बनना सरल नहीं, तब भी अतिथि - यज्ञ की भावना तो ह्रदय में धारण करनी ही चाहिए। अतिथि - यज्ञ हमारी संस्कृति का एक आधार है। तभी तो आर्यजनों के जीवन में इस यज्ञ को नित्यकर्म माना गया है -
|| साईं ! इतना दीजिए, जा में कुटुम समाय ||
|| मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय